Monday, 17 September 2018

नज़रिया: 'दहेज से छुटकारा चाहिए, उससे जुड़े क़ानून से नहीं'

नज़रिया: 'दहेज से छुटकारा चाहिए, उससे जुड़े क़ानून से नहीं'



भारत में आज भी रोज़ाना क़रीब 21 लड़कियां दहेज प्रताड़ना की वजह से मरती हैं. आज भी रोज़ 300 से ज़्यादा दहेज के मुक़दमे दर्ज होते हैं.
ऐसे में ये समझना भी ज़रूरी है कि कैसे सामाजिक माहौल में और किन रीति-रिवाजों के चलते हम अपनी बेटियों को जन्म दे रहे हैं और उनकी शादियां कर रहे हैं.
पैदा होने के बाद से ही लड़कियों को 'पराया धन' माना जाता है और एक बार जब उसकी शादी हो जाती है तो कहा जाता है कि लड़की अपने घर चली गई.
जहाँ वो जन्म लेती है, वो घर उसका होता ही नहीं. ऐसी मान्यता है कि जिस घर वो शादी के बाद जाती है, वही घर उसका अपना होता है.
ऐसी स्थिति में सोचिए कि शादी के बाद पति या उसके रिश्तेदारों के ख़िलाफ़ मुक़दमा दर्ज कराना यानी अपने ही घर के बाहर होना या फिर ये कहिए कि बेघर होना है.

दिल पर कितना बड़ा पत्थर रखकर पति या उसके रिश्तेदारों के ख़िलाफ़ मुक़दमा करती होंगी लड़कियाँ. विशेष रूप से वो लड़कियाँ जिनकी गोद में बच्चे भी होते हैं.
दहेज कानून को कमज़ोर करने की कवायद
इन सभी सामाजिक मान्यताओं और शादीशुदा लड़कियों के बड़ी संख्या में मरने के बावजूद चर्चा इस विषय पर नहीं होती कि कैसे लड़कियों के ख़िलाफ़ होने वाले दहेज संबंधी अपराधों को रोका जाये.
चर्चा इस विषय पर होती है कि कैसे दहेज से संबंधित क़ानून को और अधिक कमज़ोर किया जाये.
सर्वोच्च न्यायालय ने शनिवार को 'सोशल एक्शन फ़ोरम फ़ॉर मानवाधिकार बनाम यूनियन ऑफ़ इंडिया' मामले में 498-ए पर जो फ़ैसला सुनाया है, वो मेरे द्वारा साल 2015 में दायर की गई एक जनहित याचिका थी.
याचिका डालने की आवश्यकता इसलिए महसूस हुई क्योंकि समय-समय पर अलग-अलग उच्च न्यायालयों के द्वारा तथा सरकार के ज्ञापनों द्वारा 498-ए के मुक़दमों में विभिन्न निर्देश जारी किये गए थे.
जैसे किन परिस्थितियों में एफ़आईआर लिखी जानी चाहिए, किन कारणों के चलते गिरफ़्तारी होनी चाहिए, किस-किस को गिरफ़्तार किया जा सकता है.
और फिर 'अरुणेश कुमार बनाम भारत सरकार' केस पर सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला आता है. उसमें फिर दिशानिर्देश जारी किए जाते हैं कि एफ़आईआर कैसे दर्ज की जाए, जाँच कैसे हो, मजिस्ट्रेट मुक़दमे का संज्ञान कैसे लें, वग़ैरह-वग़ैरह.
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और फिर 'अरुणेश कुमार बनाम भारत सरकार' केस पर सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला आता है. उसमें फिर दिशानिर्देश जारी किए जाते हैं कि एफ़आईआर कैसे दर्ज की जाए, जाँच कैसे हो, मजिस्ट्रेट मुक़दमे का संज्ञान कैसे लें, वग़ैरह-वग़ैरह.
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महिलाओं के ख़िलाफ़ हिंसा पर समान नीति

SAFMA की याचिका में सर्वोच्च न्यायालय के सामने ये बात भी रखी गई कि कई तरह के दिशा-निर्देशों से महिलाओं के ख़िलाफ़ होने वाली हिंसा से संबंधित क़ानून कमज़ोर हो रहे हैं.
दहेजइमेज कॉपीरइटGETTY IMAGES
अदालत से ये प्रार्थना भी की गई कि महिलाओं के ख़िलाफ़ हो रही हिंसा के संदर्भ में एक यूनिफ़ॉर्म पॉलिसी बनाई जाये जिसके तहत ही एफ़आईआर रजिस्टर हो, गिरफ़्तारी हो और ज़मानत कैसे मिलनी चाहिए आदि.
याचिका में ये भी कहा गया कि सामान्य रूप से पुलिस भी दहेज के मामलों में जब तक कि लड़की की मौत न हो जाये, मामले को गंभीरता से नहीं लेती.
फिर जब इस तरह के फ़ैसले आ जाते हैं तो पुलिस को भी दहेज के मामलों में निष्क्रिय रहने का बहाना मिल जाता है और पुलिस कहती है कि लड़कियाँ झूठे मुक़दमे डालती हैं.
याचिका में ये भी ज़िक्र था कि 498-ए सीआरपीसी में पर्याप्त चेक एंड बैलेंस हैं जिनके द्वारा किसी भी प्रकार के दुरुपयोग को रोका जा सकता है.
लेकिन सोचने वाली बात ये है कि जब एफ़आईआर के दर्ज होने से लेकर, जाँच को लेकर, गिरफ़्तारी को लेकर क़ानून बखूबी बनाये गए हैं, फिर ऐसा क्यों होता है कि दहेज से संबंधित अपराधों को लेकर ही नये-नये दिशानिर्देश जारी किये जाते हैं?

हर बार नए दिशानिर्देश क्यों?

जब SAFMA की याचिका सर्वोच्च न्यायालय में चल ही रही थी, तभी 2017 में 'राजेश शर्मा बनाम भारत सरकार' का मुक़दमा सुप्रीम कोर्ट के सामने आता है.
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इस मुक़दमे का तो मानो खंडपीठ इंतज़ार ही कर रही थी. इस पर नये प्रकार के दिशानिर्देश पैरा-19 में जारी किये गए. इनमें लिखा गया:
1. हर ज़िले में 'फ़ैमिली वेलफ़ेयर कमिटी' होनी चाहिए. सिविल सोसायटी के सदस्यों को मिलाकर ये कमेटी बनाई जाये. यही कमेटी रिपोर्ट देगी कि गिरफ़्तारी होनी चाहिए या नहीं.
2. इन मामलों की देखभाल के लिए अलग से अफ़सर तैनात करने की भी बात कही गई.
3. समझौता होने की स्थिति में ज़िला न्यायालय ही मुक़दमे को ख़त्म कर देगा.
4. ये भी कहा गया कि ज़मानत दी जाये या नहीं, ये बड़ी सावधानी से तय किया जाये.
5. रेड कॉर्नर नोटिस रुटीन में जारी नहीं किये जायें.
6. ज़िला जज सभी मामलों को मिला सकता है.
7. परिवार के सभी सदस्यों की कोर्ट में पेशी की आवश्यकता नहीं होनी चाहिए.
8. ये निर्देश गंभीर चोटों या मृत्यु की स्थिति में लागू नहीं होंगे.
राजेश शर्मा के मुक़दमे के बाद काफ़ी आवाज़ें उठीं कि कैसे सुप्रीम कोर्ट को क़ानून बनाने का अधिकार मिल जाता है.
कई आर्टिकल लिखे गये कि राजेश शर्मा के मामले में दिया गया फ़ैसला संविधान की भावना के विरुद्ध है.
फिर सुप्रीम कोर्ट के सामने न्यायधर एनजीओ के नाम से याचिका डाली जाती है कि इसमें प्रार्थना की गई कि समिति में महिलाओं की भी सहभागिता होनी चाहिए. ये याचिका भारत के चीफ़ जस्टिस के कोर्ट में लगी थी.
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SAFMA ने न्यायधर एनजीओ की याचिका में हस्तक्षेपकर्ता के तौर पर आवेदन किया तो न्यायालय ने दोनों मामलों को साथ जोड़ दिया और दोबारा विचार के लिए राजेश शर्मा के फ़ैसले को भी कोर्ट के सामने रखा गया.
कोर्ट ने अपने निर्णायक फ़ैसले में ये निम्नलिखित निर्देश दिये:
1. क़ानूनी ढांचे के बाहर है इसलिए ये लागू नहीं किया जा सकता.
2. दूसरा निर्देश इस फ़ैसले के अनुरूप है.
3. कहा गया कि अगर समझौता होता है तो हाई कोर्ट में ही केस के निपटारे की याचिका डालनी होगी.
4. चौथे और पाँचवें निर्देश को बरकरार रखा गया.
5. जहाँ तक छठे और सातवें निर्देश का प्रश्न था कि कोर्ट में व्यक्तिगत पेशी हो या नहीं, तो उसके लिये सीआरपीसी के सेक्शन 205 और 317 के तहत आवेदन जमा करने के निर्देश दिये गए.
इस फ़ैसले में कहीं भी दहेज के मामलों को काबिले ज़मानत नहीं बनाया गया. कुछ ख़बरों में ऐसा छपा है कि दहेज के मामलों में ज़मानत मिल सकती है.

कोर्ट के फ़ैसले को लेकर भ्रम

ऐसा शायद इसलिए छपा होगा कि अगर ग़ैर-ज़मानती जुर्म है तो प्रारंभिक ज़मानत कैसे मिल सकती है. क्योंकि अग्रिम ज़मानत या ज़मानत का प्रावधान ग़ैर-ज़मानती अपराधों में ही होता है.
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जिस बात से शुरुआत की थी, अपनी बात मैं उसी के साथ समाप्त करना चाहूँगी.
दहेज का प्रचलन इतना बढ़ गया है कि लड़की वालों को शादी पर करोड़ो रुपए ख़र्च करने पड़ते हैं. दहेज की प्रथा घटने की जगह बढ़ी ही है.
बहुत अच्छा होता अगर माननीय न्यायाधीश ये भी व्यवस्था दे देते कि इस तरह पत्नियों पर आरोप नहीं लगने चाहिए कि वो झूठी हैं और बदनीयती से अपने पति और ससुराल पक्ष के लोगों के ख़िलाफ़ मुक़दमे डालती हैं.
अगर दहेज की प्रथा समाप्त हो जाए तो सीधी सी बात है कि दहेज से संबंधित इन कानूनों की प्रासंगिकता भी समाप्त हो जायेगी.
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(इस लेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं. इसमें शामिल तथ्य और विचार बीबीसी के नहीं हैं और बीबीसी इसकी कोई ज़िम्मेदारी या जवाबदेही नहीं लेती है)
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