बीजेपी ने तेलंगाना विधानसभा चुनाव के लिए प्रचार अभियान शनिवार को शुरू कर दिया. पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने तेलंगाना पहुंचकर राज्य के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव (केसीआर) और उनकी पार्टी तेलंगाना राष्ट्र समिति (टीआरएस) पर क़रारे हमले किए.
अमित शाह ने एलान किया कि भारतीय जनता पार्टी राज्य की सभी 119 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारेगी और किसी पार्टी के साथ गठबंधन नहीं करेगी.
अमित शाह ने कहा कि तेलंगाना में टीआरएस की सरकार सभी मोर्चों पर असफल हो गई है और जो वादे 2014 में जो के. चंद्रशेखर राव ने किए थे, वे पूरे नहीं हो सके. उन्होंने ये भी कहा कि जब प्रधानमंत्री ने एक देश-एक चुनाव का नारा देकर कहा था कि लोकसभा और विधानसभा चुनाव एकसाथ होंगे तो केसीआर ने आगे बढ़कर समर्थन किया था. अमित शाह ने पूछा कि अब केसीआर क्यों पहले चुनाव करवाना चाहते हैं जिससे कि तेलंगाना की जनता पर करोड़ों का बोझ पड़ेगा.
तीसरा प्रश्न अमित शाह ने एमआईएम को लेकर उठाया. उनका कहना था कि केसीआर की सरकार वोट बैंक की राजनीति कर रही हैं. उन्होंने मुसलमानों का नाम तो नहीं लिया मगर कहा कि टीआरएस और केसीआर खुश करने की राजनीति कर रहे हैं. उन्होंने ये भी कहा कि केसीआर एमआईएम के इशारे पर काम कर रहे हैं.
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तेलांगना में भी 'हिंदुत्व'?
इससे बड़ा हमला उन्होंने भारतीय संघ में हैदराबाद के विलय का ज़िक्र करते हुए किया. 17 सितंबर 1948 को हैदराबाद का विलय भारतीय संघ में हुआ था. अमित शाह ने पूछा कि टीआरएस सरकार इस दिन को सरकारी दिन के तौर पर क्यों नहीं मनाती. उन्होंने कहा कि एमआईएम के कारण वह ऐसा कर रही है. उन्होंने कहा कि अगर टीआरएस दोबारा सत्ता में आई तो वह इसी राजनीति को जारी रखेगी और आज के रज़ाकारों के हाथ में राज्य चला जाएगा.
इसका संदर्भ यह है कि निज़ाम के दौर में रज़ाकार नाम के अर्ध सैनिक बल थे. उनका कहना था कि मजलिस आज के दौर के रज़ाकार हैं.
ज़ाहिर सी बात है कि उनके इन शब्दों से संदेश जा रहा है कि वह तेलंगाना में हिंदुत्व की राजनीति को ही आगे बढ़ाने की कोशिश करेंगे. बीजेपी की समस्या यह भी है कि यहां पर कोई बड़ा भावनात्मक मुद्दा नहीं है जिसका वह इस्तेमाल कर सके. ऐसे में आखिर में यही बात रह जाती है कि टीआरएस और मजलिस के बीच किस तरह के संबंध हैं.
अमित शाह ने मुस्लिम राजनीति के हवाले से बात कही है कि केसीआर पिछले चार सालों में यह वादा करते रहे और उन्होंने कोशिश की कि पिछड़े वर्ग के मुसलमानों को राज्य में मिले चार प्रतिशत के आरक्षण को 12 प्रतिशत किया जाए. यह केसीआर का मुख्य वादा था और विधानसभा में इसका बिल पास भी हुआ था और केंद्र के पास गया था जिसे केंद्र ने मंज़ूरी नहीं दी थी.
अमित शाह का कहना था कि इस तरह से आरक्षण बढ़ाने की बात करना भी मुसमलानों को खुश करने की कोशिश है, वोट बैंक की राजनीति है.
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बीजेपी के पास क्या है तेलंगाना में?
शुरू से माना जा रहा था कि भारतीय जनता पार्टी और तेलंगाना राष्ट्र समिति (टीआरएस) के बीच रिश्ता जम जाएगा. मगर टीआरएस ने भी इनकार कर दिया और अमित शाह ने भी कह दिया कि हम 119 विधानसभा सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारेंगे और अकेले चुनाव लड़ेंगे, किसी पार्टी से गठबंधन नहीं होगा.
दावे तो बीजेपी के नेताओं की तरफ से बहुत हुए हैं. अमित शाह तेलंगाना आते रहे हैं और कहते रहे हैं कि 2019 में बीजेपी की सरकार बनाने का मिशन है. मगर चुनावी नक्शे पर नज़र डालें तो ऐसी संभावना नज़र नहीं आती. बीजेपी बहुत बड़ी शक्ति नहीं है तेलंगाना में. 2014 में उसे सिर्फ़ सात प्रतिशत वोट मिले थे. पांच सीटें विधानसभा और एक लोकसभा की सीट जीत सकी थी.
अभी भी एक तरफ़ टीआरएस है और दूसरी तरफ कांग्रेस, टीडीपी और अन्य पार्टियों का गठबंधन होगा जिसकी प्रक्रिया चल रही है. तीसरी तरफ बीजेपी होगी. तो भारतीय जनता पार्टी की संगठनात्मक शक्ति भी यहां नहीं है. कुछ चुने हुए चुनावक्षेत्र हैं जहां उसकी शक्ति है मगर पूरे राज्य में शायद उसे हर चुनावक्षेत्र में खड़े करने के लिए उम्मीदवार भी नहीं मिल जाएंगे.
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ऐसे में यह कहना कि हम खुद अपनी सरकार बनाएंगे, मुश्किल सी बात है. वैसे दिलचस्प बात यह है कि अमित शाह ने अपनी पार्टी के लिए यह कहा कि वह निर्णायक भूमिका निभाएगी. उन्होंने यह नहीं कहा कि वह सरकार बनाएगी, जबकि पहले वह कहते रहे हैं.
तो मुक़ाबले में शायद बीजेपी तीसरे नंबर पर रहे. देखना होगा कि किस पार्टी को कितना बहुमत मिलता है और कहीं छोटी पार्टियों की भूमिका तो नहीं बनती. अगर ऐसी स्थिति बनती है तो फिर बीजेपी की कोई भूमिका होगी, वरना नहीं.
महबूबनगर चुनावक्षेत्र में अमित शाह ने चुनाव अभियान शुरू किया. इसका महत्व यह है कि यह उन इलाकों में से एक है जहां बीजेपी का असर है. 2009 के चुनाव में बीजेपी ने महबूबनगर लोकसभा सीट जीती थी मगर बाद के चुनाव में हार गई थी.
क्या विरोधी का विरोधी होता है दोस्त?
अमित शाह ने जिस तरह से केसीआर पर कड़े हमले किए हैं, यह सिलसिला जारी रहेगा. बीजेपी और टीआरएस दोनों ऐसा सोच रही हैं कि 2019 में क्या होगा वह बाद में देखा जाएगा. समय से पहले विधानसभा चुनाव करवाने की प्रक्रिया में केसीआर ने कई संकेत दिए थे जैसे कि वह इस पक्ष में रहेंगे कि नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बनें और वह ज़रूरत पड़ने पर समर्थन करेंगे.
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मगर यह सब निजी तौर पर कहा या संकेत दिया, लेकिन खुलकर ऐसा नहीं किया. जैसे बार-बार प्रधानमंत्री से मिलना या उपराष्ट्रपति का चुनाव हो या अन्य मुख्य मुद्दे हों, उन पर उन्होंने एक तरह से बीजेपी और नरेंद्र मोदी की लाइन का समर्थन किया है.
इससे यह संदेश देने की कोशिश की कि ज़रूरत पड़ने पर वह समर्थन कर सकते हैं. केसीआर का असल हमला कांग्रेस पर होता है. वह कांग्रेस पार्टी पर कड़े हमले करते रहे हैं.
इससे लगता है कि कांग्रेस उनके लिए असल दुश्मन है और बाक़ी पार्टियां अलग सी बात हैं. तो विश्लेषक इन सब बातों का अर्थ यह निकाल रहे थे कि अगर कल को बीजेपी को बहुमत के लिए ज़रूरत पड़ती है तो केसीआर बीजेपी के साथ जा सकते हैं.
कांग्रेस के नेतृत्व में गठबंधन और भाजपा के नेतृत्व में गठबंधन में से एक उन्हें चुनना हो तो वह बीजेपी का चुनाव करेंगे क्योंकि तेलंगाना राज्य की राजनीति में कांग्रेस ही टीआरएस की असल दुश्मन है, बीजेपी नहीं.
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